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मैं नज़र आऊँ हर इक सिम्त जिधर चाहूँ / किश्वर नाहिद
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मैं नज़र आऊँ हर इक सिम्त जिधर चाहूँ
ये गवाही मैं हर इक आईना गर से चाहूँ
मैं तिरा रंग हर इक मत्ला-ए-दर से माँगूँ
मैं तिरा साया हर इक रहगुज़र से चाहूँ
सोहबतें ख़ूब हैं ख़ुश वक़्ती-ए-ग़म की ख़ातिर
कोई ऐसा हो जिसे जानो-जिगर से चाहूँ
मैं बदल डालूँ वफ़ाओं की जुनूँ सामानी
मैं उसे चाहूँ तो ख़ुद अपनी ख़बर से चाहूँ
आँख जब तक है नज़ारे की तलब है बाक़ी
तेरी ख़ुश्बू को मैं किस ज़ौक़े-नज़र से चाहूँ
घर के धंधे कि निमटते ही नहीं हैं 'नाहिद'
मैं निकलना भी अगर शाम को घर से चाहूँ