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मैं नहीं चाहता हूँ दुनिया की दौलत / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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मैं नहीं चाहता हूँ दुनियाँ की दौलत
बस एक बार कह दो कि तुम्हारा हूँ मैं।
चल पड़ा नाव लेकर मैं एक अकेला
पतवार बिना मेरी दिशि पलट रही है,
तूफान इधर, चट्टान उधर, ऊपर जल
लहरों की करवट, नौका उलट रही है।
फिर भी मुझको विश्वास पार लगने का
बस एक बार कह दो कि किनारा हूँ मैं।
मैं निराधार नभ-सा धरती पर छाऊँ
औ’ धरती बनकर नभ का भार उठाऊँ,
नन्हीं-सी कीली एक नगण्य न समझो
अपने ऊपर सारा ब्रह्मांड घुमाऊँ।
मैं कूद पड़ूँ रवि-सा नभ के शिखरों से
बस एक बार कह दो कि सहारा हूँ मैं।
मैं चढ़ूँ हिमाँचल की चोटी पर हँसकर
औ’ धसूँ सिंधु में जल की थाह लगाने,
मरुथल की सरिता के जलते अंगारे
पी जाऊँ इन अधरों की प्यास बुझाने।
विष खा-खाकर अमरत्व प्राप्त कर लूँगा
बस एक बार कह दो कि इशारा हूँ मैं।