भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं ने अपनी मौत पे इक नौहा लिक्खा है / जमाल ओवैसी
Kavita Kosh से
मैं ने अपनी मौत पे इक नौहा लिक्खा है
तुम को सुनाता हूँ देखो कैसा लगता है
जिस्म को कर डाला है ख़्वाहिश का हरकारा
चेहरे पर मस्नूई वक़ार सजा रक्खा है
सूनी कर डाली है बस्ती ख़्वाब-नगर की
कल तक जो दरिया बहता था ख़ुश्क हुआ है
होंटों से जंज़ीर-ए-ख़मोशी बाँध रखी है
ताक़-ए-उम्मीद पे दिल का चराग़ बुझा रक्खा है
नींद से बोझल पल्कों पर अँदेशा-ए-मिट्टी
कश्ती-ए-जाँ के डूबने का लम्हा आया है