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मैं न तुमसे एक क्षण भी दूर हूँ / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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मैं न तुमसे एक क्षण भी दूर हूँ।
नित्य ही तुममें निरत भरपूर हूँ॥

नित्य तुम रहतीं मुझीसे हो मिली।
नित्य ही रहती कलित कलि है खिली॥

चल रही है ललित लीला सर्वदा।
बह रही है मधुर-रस-सरिता सदा॥

उसीमें नित डुबकियाँ हैं लग रही।
नित्य आस्वादन-स्पृहा नव जग रही॥

रस-सुधा-निधि अमित है, परितृप्त है।
किंतु आस्वादन सदा अवितृप्त है॥

चल रहा पर रास नित्य अबाध है।
रास की नित नयी मन में साध है॥