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मैं पत्थर अदना-सा हूँ / शैलेन्द्र शर्मा

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नहीं हिमालय जितना ऊँचा
 मैं पत्थर अदना-सा हूँ

धारा तो दुश्मन है लेकिन
मिलीं ठोकरें अपनों से
क्या होता अवकाश न जाना
रहा अपरिचय सपनों से

अंतिम साँसों तक लड़कर मैं
जीने की अभिलाषा हूँ

संघर्षों में पली-बढ़ी
कुछ रूखी है अपनी बानी
पर करती बहुत सहजता से
दूध-दूध, पानी-पानी

मुक्तिबोध-अग्येय नहीं हूँ
मैं कबीर की भाषा हूँ

अपनी क्षमता का पता मुझे
रेत-रेत हो जाना है
किन्तु खाद-मिट्टी से मिलकर
क्रांति-बीज बो जाना है

बाधाओं से नित लड़कर ही
जीने की परिभाषा हूँ