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मैं पलकों में पाल रही हूँ यह सपना सुकमार किसी का! / महादेवी वर्मा
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जाने क्यों कहता है कोई,
मैं तम की उलझन में खोई,
धूममयी वीथी-वीथी में,
लुक-छिप कर विद्युत् सी रोई;
मैं कण-कण में ढाल रही अलि आँसू के मिस प्यार किसी का!
रज में शूलों का मृदु चुम्बन,
नभ में मेघों का आमंत्रण,
आज प्रलय का सिन्धु कर रहा
मेरी कम्पन का अभिनन्दन!
लाया झंझा-दूत सुरभिमय साँसों का उपहार किसी का!
पुतली ने आकाश चुराया,
उर विद्युत्-लोक छिपाया,
अंगराग सी है अंगों में
सीमाहीन उसी की छाया!
अपने तन पर भासा है अलि जाने क्यों श्रृंगार किसी का!
मैं कैसे उलझूँ इति-अथ में,
गति मेरी संसृति है पथ में,
बनता है इतिहास मिलन का
प्यास भरे अभिसार अकथ में!
मेरे प्रति पग गर बसता जाता सूना संसार किसी का!