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मैं पागल हूँ इसीलिए तुम / सर्वेश अस्थाना

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मैं पागल हूँ इसीलिए तुम मेरी आँखों को पढ़ लेना।
जब उगता है स्वर्णिम सूरज सिर्फ तुम्हारा रूप सुझाता,
आसमान का विस्तृत आंगन फ़क़त तुम्हारा हृदय दिखाता।
धूप गुनगुनी शांत चांदनी सूरज चंदा और सितारे
अगर तुम्हारी खुशबू इनमें तो ही ये जग मुझे सुहाता।
मेरे शब्द शिथिल हैं शायद, भाव गीत तुम ही गढ़ लेना।
मैं पागल.....

मैं रेतीला एक दुर्ग हूँ जिसका कण कण प्रेम सिक्त है,
किन्तु महल का कोना कोना यूं लगता है रिक्त रिक्त है।
हर स्पंदन मृदु मृदु बोले साँसों में चन्दन की आशा,
लेकिन नियति बड़ी निष्ठुर है कर देती सब तिक्त तिक्त है।
तुम मेरे उदास चित्रों पर अपनी मुस्काने मढ़ लेना।
मैं पागल....

पर्वतीय रस्तों पर मेरा सिर्फ उतरना ही होता है,
और पुष्प की पंखुड़ियों सा महज बिखरना ही होता है।
कितने सुंदर दृश्य-नज़ारे आपस मे घुल घुल बतियाते,
काली काली तन्हाई से मुझे संवरना ही होता है।
मैं घाटी का पंगु मेमना हूँ तुम शिखरों पर चढ़ लेना।
मैं पागल....