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मैं पिछली रात क्या जाने कहाँ था / 'क़ैसर'-उल जाफ़री
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मैं पिछली रात क्या जाने कहाँ था
दुआओं का भी लहजा बे-जबाँ था
हवा गम-सुम थी सूना आशियाँ था
परिंदा रात भर जाने कहाँ था
हवाओं में उड़ा करते थे हम भी
हमारे सामने भी आसमाँ था
मिरी तक़दीर थी आवारागर्दी
मेरा सारा क़बीला बे-मकाँ था
मजे से सो रही थी सारी बस्ती
जहां मैं था वहीँ धुआँ था
मैं अपनी लाश पर आंसू बहाता
मुझे दुःख था मगर इतना कहाँ था
सफ़र काटा है इतनी मुश्किलों से
वहां साया न था पानी जहाँ था
कहाँ से आ गयी है ख़ुद-नुमाई
वहीँ फेंक आओ आईना जहाँ था
मैं क़त्ल-ए-आम का शाहिद हूँ 'क़ैसर'
कि बस्ती में मीरा ऊँचा मकाँ था