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मैं पूछता हूँ कवियों से / काएसिन कुलिएव / सुधीर सक्सेना

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उनमें मेरी कहीं कोई आस्था नहीं है
जिनकी आँखें दुख के आँसुओं से नहीं डबडबाईं
गो मैं जानता हूँ कि पानी भी बिलख उठता है
जब उसकी सतह पर जमती है बर्फ़ ।

नदी कलप उठती है, जैसे हम और तुम
जानते हुए कि आँसुओं की कोई वजह नहीं
एक दिन ख़ुद-ब-ख़ुद पिघल जाएगी बर्फ़
और तट पर ओल्ख़ा वृक्षों में फूटेंगे नए कल्ले ।

कितना दुख भरा है पेड़ के लिए
शरद में निर्वसन होना ।
कितना वेदनामय है डाल के लिए टूटना ।
कितना सन्तापकारी है बर्फ़ के लिए पिघलना ।
कितना पीड़ा भरा है घास के लिए हिम से रौन्दा जाना ।

मुझे दीख रहा है दिनान्त में अछोर सड़क पर
आँसू बहाता किसान का एक घोड़ा
धूल और धूप में घिसटता हुआ
बुरी तरह थका बेदम घोड़ा ।

मैं पूछता हूँ कवियों से क्या तुम जानते हो
पत्तियों के झड़ने पर पेड़ों के अहसास,
सरपट काटे जाने पर घास की पीड़ा,
और परित्याग पर औरत की वेदना

हँसी-ख़ुशी जीने का ढब और कभी न रोना
सिर्फ़ उन्हीं की ख़ूबी है,
जिन्होंने अपनी माँ और
युद्ध में हत भाई को नहीं चाहा ।

ढेर सारे कहकहे और मस्ती
ज़िन्दगी की ख़ुशी के लिए काफ़ी नहीं
सरल है सब लोगों को चाहना
पर मुश्किल है अपने पड़ोसी से प्यार ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुधीर सक्सेना