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मैं प्यार चाहती हूँ / श्वेता राय

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है रात आज काली, घनघोर है अँधेरा।
बेचैनियाँ हृदय में, करने लगी बसेरा॥
भीगी हुई हवायें, बंसी बजा रही हैं।
आँसू भरे नयन में, सपने सजा रही हैं॥
तुम दूर जा रहे हो, या पास आ रहे हो।
इतना मुझे बता दो, तुम क्यों सता रहे हो॥
प्रिय! प्रेम का सदा मैं, श्रृंगार चाहती हूँ।
हे मीत! बस तुम्हारा, मैं प्यार चाहती हूँ॥

मन में जगी उमंगें, प्रिय साथ हो हमारा।
मझधार में फंसे हो, या दूर हो किनारा॥
उर भाव की नदी में, संचार भाव भर दो।
हिमशीत से पलों में, अभिसार भाव भर दो॥
अपने अधर कमल से, संजीवनी पिला दो।
मृतप्राय हो रही मैं, नव प्राण पुंज ला दो॥
सौभाग्य पर तुम्हारे, अधिकार चाहती हूँ।
हे मीत! बस तुम्हारा, मैं प्यार चाहती हूँ॥

ठहरी लगे धरा ये, आकाश घूमता क्यों।
दृग झील के कँवल को, ये चाँद चूमता क्यों॥
हर राह खिल रही है, गलियाँ महक रही क्यों।
बिन वात के बसंती, पीहू चहक रही क्यों॥
प्रिय! साथ से तुम्हारे, हर रात जगमगाती।
परिजात से महक ले, हर बात महमहाती॥
आकाश से धरा तक, विस्तार चाहती हूँ।
हे मीत! बस तुम्हारा, मैं प्यार चाहती हूँ!!