भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं बताना चाहता था फ़सलों की अनंत स्मृतियां / नीलोत्पल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

डरता हूँ ख़ुद के क़रीब जाते हुए
डरता हूँ कहीं कोई देख न ले
पकड़ न ले अपनी निगाह में

कहीं कुछ छिपा रहा हूँ
कोई खिड़की खोल दे
मारे शर्म के धँस पडँ

कितनी ही बातें नंगा करती रहीं
जिन्हें ढ़ँकने की कोशिश में लगा रहा
बचता, जिनके खि़लाफ़ होना था

फ़तवे, जुलूस, झण्डों के पीछे नहीं गया
चीज़ों के मायालोक में नहीं धँसा
फिर भी झुलसाती रहीं उनकी लपटें
चीखता रहा वसंत को वसंत कहते हुए
लेकिन लोगों का ध्यान दंगों ने खींचा

ये मेरी हक़ीक़त है
मैं रोटी के लिए नहीं लड़ा
रोटी बनाने वाले हाथों ने मेरा साथ दिया

मैं कह नहीं पाया उनके बारे में
वे हमेशा देते रहे अपने होंठों और हाथों की गरमाई
मै बताना चाहता था फसलों की अनंत स्मृतियाँ
और हाथों का तनाव भरा ज़िक्र

वक़्त के चाक पर सभी को होना है
समुद्र की तरह न सही
लहर की तरह न सही
बून्द की तरह न सही
समुद्र की छाया में तन रही चट्टान की तरह
जीना चाहता हूँ समुद्र का आवेग
जो बार-बार टकराता है मुझसे