मैं बहुत ख़ुश हूँ अगर... / अमरनाथ श्रीवास्तव
लौटने पर शेष है
या कुछ कि मेरे बाद कितना
देखना है इस गली में
कौन किसको याद कितना
या खिलौने जो कि बचपन में दिखे,
मिलते अभी हैं
वस्त्र जो छोटे हुए,
दर्ज़ी पुन: सिलते अभी हैं
हर शरारत पर
सुबह के फूल-सा खिलते अभी हैं
बड़ी-बूढ़ी आँख जिनको
चूम कर लेती बलैयाँ
देखना है शेष है
उस समय से संवाद कितना
क्या उन्हीं मोहक धुनों की
बांसुरी हैं, सीटियाँ भी
रँगे चीनी के खिलौने
और बजती घण्टियाँ भी
क्या वही है भीड़ जो थी कभी
मेले में उमड़ती
दूर तक लम्बी कतारों में चलें
ज्यों चींटियाँ थीं
या वही ख़ुशबू लिए है
सजे मेले की मिठाई
'टाफ़ियों` के दौर में है
रेवड़ियों में स्वाद कितना
इस क़दर बेमेल चूड़ी थी
कि आ जाए रुलाई
फिर भी चुड़िहारिन डपटकर,
खींचती संकुची कलाई
सिर्फ़ चोटी और बिन्दी लिए
मनिहारा मिला तो
नई फ़रमाइश, शिकायत
और फिर बातें हवाई
शहर को भी मुँह चिढ़ाती,
वह फ़क़ीरी मौज अपनी
फ़ैशनों का जो रही अपवाद,
वह अपवाद कितना
आँच तीखी धूप की
जब शिकन चेहरे की बनी हो
या कहीं है पेड़ अब भी,
जिस जगह छाया घनी हो
भाव की ख़बरें सुनातीं,
आढ़तें हैं गांव घर में
हैं कि जीवन-मूल्य वे,
बाज़ार से जिनकी ठनी हो
ले उड़ीं सारा हरापन, भोगवादी टिड़्डियाँ हैं
मैं बहुत ख़ुश हूँ अगर तो,
है कहीं अवसाद कितना ।