भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं बहुत बाद में आती हूँ / विपिन चौधरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहली आती हैं अधजली स्मृतियाँ
फिर उदासी की शैतान परछाइयां
कुछ समय बाद यादों की पैड मस्तिष्क पर पड़ने
लगते हैं
कुछ रिश्तेदार देर से देहरी पर अटके हैं
कि कुछ कहना है उन्हें
वे आते दिखते हैं
लेकिन देर से कहीं अटके हुए हैं
बाराहमासा की गुनगुनाती हुई रंगीनियाँ
साल-दर-साल चली आती हैं
रोशनी के एक कदम पीछे
अँधेरा चला आता है
एक लाट साहब भी आने की तैयारी में
फीते बाँधते दिखते हैं
'भूख सबसे बड़ा गुनाह है'
कहने वाला नया राष्ट्रपति आता है
चौराहे पर हरदम खड़ा रहने वाला
भिखमंगा भी दरवाज़े पर चला आता है
तयशुदा कार्यक्रम के तहत
और तयशुदा कार्यक्रम के बाहर
बारी-बारी से सब आते हैं
अपने आप में उलझी मैं
सबसे बाद में आती हूँ.