मैं भी था मद्दाह उसका मुँह अगरचे बन्द था / कांतिमोहन 'सोज़'
ज़हूर सिद्दीक़ी के लिए
मैं भी था मद्दाह<ref>प्रशंसक</ref> उसका मुँह अगरचे बन्द था ।
पान में ज़र्दे के गोया ढेर सा गुलक़न्द था ।।
खाके लाठी पीठ पर दहक़ां<ref>किसान</ref> ने उससे ये कहा
फ़ौज में जाने से पहले तू मेरा फ़रज़न्द<ref>बेटा</ref> था ।
दीन हो या हो धरम बन्दा तो ये देखा किया
हर जफ़ाख़ू<ref>अत्याचारी</ref> अपने-अपने दीन का पाबन्द था ।
चोर भी शायर था शायद मिसरा-सानी<ref>शेर की दूसरी लाइन</ref> लिख गया
बात बस इतनी-सी है मैं भी ज़रूरतमन्द था ।
जेल के बाहर उसे तकलीफ़ ही तकलीफ़ है
जेल के भीतर जिसे आनन्द ही आनन्द था ।
मद्रसे में दस्तबस्ता<ref>हाथ जोड़कर</ref> हम भी अकबर<ref>अकबर इलाहाबादी</ref> के गए
ऐरे-ग़ैरों के लिए वां दाख़िला ही बन्द था ।
हम समझ ही कब सके गूंगे वतन की बात सोज़
बेग़रज़<ref>निःस्वार्थ</ref> था वो यक़ीनन फिर भी हाजतमन्द<ref>ज़रूरतमन्द</ref> था ।।