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मैं भी देखूँगी, क्या है उस पार / तारा सिंह
Kavita Kosh से
मैं भी देखूँगी, क्या है उस पार
लाँघकर क्षितिज की अंतिम दहली
तेरे संग रहने मैं आऊँगी
कब भूला है विहग घर अपना
जो तुम्हारा घर मैं भूलूँगी
मैं भी देखूँगी, क्या है उस पार
जिसके लिए तुमने मेरे जीवन
नौका को, जग तम की उफ़नती
लहरों पर छोड़कर चले गये
यहाँ तुम्हारी प्रीति, मेरे उर को
सपने में भी बाँधे रखती
पल-पल रुलाती
जगाये रखती दिन और रात
मुझसे कहती जिसके साँस गंध से
सुरभित है तुम्हारा अंग-अंग
जिसके लिए तुम्हारा प्राण
हृदय के मरुदेश में भरता चित्कार
अब वह नहीं सुनेगा तुम्हारी पुकार
भाग्य ने मुझ संग यह कैसा खेल खेला
काल ने उड़ाया मेरे साथ कैसा उपहास
बिछड़े मित्र, छला मैत्री ने मुझको
उर तृषा कर रही, उसी के लिए हाहाकार