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मैं भूली / तारादेवी पांडेय
Kavita Kosh से
मैंने पंथ न पहचाना।
सखि, जाके धुँधले प्रकाश में अपना ही सब जाना,
प्रभु को भूली, कर्तब भूली,
बुद्धि विवेक सभी मैं भूली।
माया मोह नहीं एक भूली,
बन्धन ही में फूली।
मैं हूँ कौन? कहाँ से आई?
इस पर मैंने नहीं विचारा।
झूठे जग में केवल अपना,
ममता का ही पाश पसारा।
यह मेरा है, वह मेरा है,
इस भ्रम में ही अब तक फूली,
सच्चा पंथ बना दो आली,
अपने को भी जाती भूली।