मैं मछली हूँ (कविता) / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
" विधि के नयनों की
झरी चपलता सिन्धु बनी,
मैं प्राण स्वरूपा
जिसमें सतत समायी हूँ।
जीवन को जीवन सौंप
समन्वय की गीता-
पढ़ती हूँ मंगलमयी
लोक सुखदायी हूँ। "
'मैं मछली हूँ'
संगिनी सनातन जीवन की,
मैं सदा लोकहित की
धारा में बहती हूँ।
बन जाता है संसार
सकल जब प्रलय-ग्रास,
मैं फिर भी सुमिरन करती
जीती रहती हूँ।
मैंने माटी से प्रेम किया
पर सजला से,
निर्जला मुझे तो
नही कभी भी भायी है।
जब कभी निर्जला से है
मेरी भेट हुई
तब-तब मेरे
प्राणों पर ही बन आयी है।
मैं सतत संचरणशील
प्रेरणा-सी अभिनव,
क्षणभर का भी ठहराव
मुझे है भा न सका।
मैं यौवन की भावना-
मधुर-सी चंचल हूँ;
मेरा जीवन
संयम का वर है पा न सका।
मैं नदियों के दृग बनी,
उल्लसित धारा से-
जीवन के देखे
विविध रंग उपहारों से।
मैंने देखे हैं
नगर गाँव ढ़हते-बहते
आँसू की धारें
मिलती जल की धारों से।
मैंने देखी यज्ञों की
पावन छटा-घटा-
सी घिरती धूम्रराशि
पावन तट-प्रान्तों में।
अक्षर वेदों के मन्त्र
गूँजते मधुर-मधुर
हैं जगा रहे
शुभ शान्ति नितान्त अशान्तों में।
मैंने देखे
नव-यौवन के सानन्द पर्व,
युगलों के हास-
विलास-रास मधुमासों में।
जीवन के सोनल-
स्वप्नों के साकार रूप,
अम्बर बेधी उत्तप्त
सघन निश्वासों में।
गहरे पगचिन्ह
रेत पर देखे जीवन के
नवयौवन के
पहचान-पत्र से मुद्रित वर।
मैंने पायल की
रुनझुन मोहक मधुर सुनी,
अलकों की
घिरी घटाएँ छवि के अम्बर पर।
उन मदिर लोचनों में
अपना प्रतिबिम्ब देख-
होकर लज्जित मैं
पानी-पानी होती हूँ।
स्वप्नों-सी लहरों में
चंचल अंचल समेट
भावों की मधुरिम
धाराओं में खोती हूँ।
मैंने तलवारों की
रक्तिम छवि देखी है,
जिसमें प्राणां की
लाली के दर्शन पाये।
हैं पढ़े मृत्यु के श्लोक
मौन रण-रंगो में
बह उठे अश्रु के निर्झर
खारे अकुलाये।
मैंने जीवन की रेत
धधकती देखी है,
देखे हैं प्राण
छटपटाते अंगारों पर।
कंचन-काया
धू-धू कर जलती देखी है-
जीवन की आशा
आयु विहीन कगारों पर।
पानी से होकर विलग
नही मेरा पानी
रह सकता है जीवन्त
कभी रस-रंग बना।
अद्वैतवाद मुझसे ही
प्रेरित हो जन्मा-
जगती में सम्हला-
चला धर्म का अंग बना।
चंचला-मंगला अविच्छिन्न
मेरे स्वरूप,
हैं बने युगल सुख के
साधन जन जीवन में।
मेरा दर्शन
शुभ शकुन सदा माना जाता,
मैं दर्शनीय होकर
आनन्दित हूँ मन में।
हो सकी द्वेश से
विलग न मैं भी किन्तु रंच
अग्रजा बनी अनुजाओं
का भक्षण करती।
ज्वारिल-खारिल
सगर की प्रखर तरंगों में,
जीवन का सहती दण्ड
प्राण रक्षण करती।
मैं सबसे छोटी
और बड़ी सबसे भूपर,
सागर से ताल-तलैयों
तक विस्तृत सत्ता।
मुझसे परिचित-सा
हर्षित रहता चक्रवाल,
नाना पुराण कहते हैं
मेरी गुणवत्ता।
क्या कहूँ निठुर
ठस मानव को जिसने मेरा-
जीवन धन लूटा
और भरे निज कोषविपुल।
मेरे जीवन को
जीवन से कर अलग-थलग,
निज उदर पूर्ति के लिए
दिये दुख दर्द अतुल।
मैं हूँ यद्यपि मंगलदात्री
अभिनन्दनीय
पर निन्दनीय
यह मनुज स्वार्थ का महाप्रेत।
करता मुझ विरहिणि
का मर्दन सब धर्म भूल,
छेदता हृदय को बन अचेत।
मेरे जीवन के
जीवन को विषकुम्भ पिला,
आघात किया है
नर ने मेरे जीवन पर।
मैं पीती हूँ
जल नहीं जगत के दूषण को।
प्राणों से धोती हाथ
नियति की गति अक्षर।
देखती किन्तु मैं
वर्तमान की दिशा-दशा,
तो प्राणों में
भयसिन्धु उभरने लगता है।
आती है कल्पित
प्रलय स्वप्न के महलों में,
नयनो से अविरल
निर्झर झरने लगता है।
दुख वाडवाग्नि-सा
तपने लगता है मन में,
मैं डूब आँसुओं
की धारा में जाती हूँ।
खारे आँसू,
खारा जीवन, खारा सागर,
मैं खार-खार
होकर रोती अकुलाती हूँ।
सोचती निरन्तर
सुधास्नात इस वसुधा पर,
किसने विष के घट
क्योंकर हाय! उड़ेले हैं?
क्या मिला किसी को
कुछ न समझ में आता है,
किसने आयोजित किये
मृत्यु के मेले हैं?
वे भी क्या दिन थे
जब निर्मल था जीवन धन,
हर लहर मधुर
जीवन में लहर जगाती थी।
तन-मन दोनो
निष्कलुष उरन्तर निर्विकार-
जाग्रत नव ज्योति
मनोज्ञा-सी मुस्काती थी।
वह स्वर्णकाल
धरती का, मेरा, मानव का,
सम्पूर्ण प्रकृति का-
सतोगुणी विस्तार सरल।
जीवन की धारा
स्वस्थ, सबल, सद्धर्म, सगति,
भीतर-बाहर के
दुर्गुण मौन क्षीण दुर्बल।
मैं देख-देखकर
निखिल सृष्टि की निर्मलता,
मन ही मन अपने
फूली नहीं समाती थी।
कहती थी जीवन
धन्य धरा के अंचल में,
हर ओर शान्ति-
सद्भाव लता लहराती थी।
किसकी करनी
भर रहा कौन इस धरती पर,
जीवन की धारों पर
क्यों धार चढ़ाई है?
तृष्णा ने सुन्दर
लक्ष्य मिटाया जीवन का,
दिन पर दिन
अपनी शक्ति अनन्त बढ़ायी है।
सुख, शान्ति और सन्तोष
स्वार्थ की भेट चढ़े,
कामना-राक्षसी
खड़ी-खड़ी मुस्काती है।
जीवन का वैभव
नष्ट हो रहा देख-देख
इठलाती और
विजय का पर्व मनाती है।
देखती समझती हूँ
सबकुछ मैं किन्तु मौन
भावना उभरती
और विवश हो जाती है।
भावी विनाश के
चिन्तन से मन-प्राण विकल-
रहते हैं हरपल और
धधकती छाती है।
पढ़ती सुनती हूँ
और देखती रहती हूँ
मैं व्यथा-कथा
जीवन की जीवन के सँग में,
है सिसक रही
मानवता देखो तो कैसी?
पीड़ा के उत्स
उभरते जाते अँग-अँग में।
नीरव-धरती,
अम्बर निरभ्र, आकुल-दिगन्त,
जाने क्यों साधे मौन
सभी कुछ देख रहे।
खोये-खोये-से
लगते अन्तश्चिन्तन में,
हैं बहिर्जगत के
पाप-ताप-संताप सहे।
गंगा की धारा ने
मुझको सहचरी बना
आकाश, धरा, पाताल
सभी दिखलाये हैं।
सुर, मनुज, असुर
संस्कृतियों को देखा-परखा
जीवन के दर्षन
विविध रूप में पाये हैं।
मुस्कान संजोयी कभी,
अश्रु के रत्न लुटा-
जीवन पर जीवन
मैंने किया निछावर है।
मैंने दुलरायीं
समय-समय पर संस्कृतियाँ
मेरा जीवन-जीवन का
सच्चा सहचर है।
आँसू की धारा हो
या अमरत की धारा
मैं दोनों का ही
साथ समान निभाती हूँ।
मैं समन्वया हूँ
भारतीय संस्कार युक्त
मैं भेदभाव की
दृष्टि नहीं अपनाती हूँ।
मुझको प्रभात की
लाली से अनुराग मिला
सन्ध्या-महावरी देख
नित्य हरषायी हूँ।
रजनी के देखें हैं
सिंगार उपमा विहीन,
तारक बिम्बों के
साथ खूब इठलायी हूँ।
चन्द्रिका स्नात
जब जीवन की धारा होती
तब धवल जिन्दगी
मेरी भी हो जाती है।
पूनम प्रदत्त उपहारों से
होकर समृद्ध
मुझको कुबेर की
याद सहज ही आती है।
वह शीतलता
वह शान्ति और वैभव-विलास,
दिनमणि के आते ही
ऐसे खो जाता है,
जैसे पतझर के
आते ही वन-उपवन का,
श्री हीन रूप-रस-रंग
सभी हो जाता है।
यदि साथ-साथ चलती
तो मिलता लक्ष्य नहीं
मैं धारा के विपरीत
सदा गति करती हूँ।
है प्रलयशक्ति सम्पन्न
जलधि जग अद्वितीय
मैं उसमें भी
निर्द्वन्द्व सदैव विचरती हूँ।
मेरे सुख-दुख का
सहभागी है वरूणालय,
जो कहीं मधुर
तो कहीं भयंकर खार बना।
कैसा अपार जीवन
जीवन का रक्षक है
उन्मुक्त विचरने को
अम्बुधि आगार बना।
मैं सतत गतिमति हूँ,
पथ से अनभिज्ञ नहीं
मुझको सुस्थिर जीवन
का मिला विधान नहीं,
मैंने पीड़ा के श्लोक
पढ़े हैं लहरों पर
पर लहरों को
मेरी पीड़ा का ज्ञान नहीं।
मेरे अन्तस में बसा हुआ
चैतन्य धन्य
जिसमें जीवन की
शक्ति अनन्त समायी है,
उसके कर कमलों से
वह शक्ति मिली मुझको
अस्थिर जीवन में
जीवन ज्योति जगायी है।
मैं जीवन की
गति से संघर्षित रही सदा
पर कभी अंक में
क्षण भर रोक नहीं पायी।
देखती रह गयी
जीवन की गति निर्निमेश
पर निष्ठर जीवन में
कब करूणा अँखुआयी।
क्या करूँ नियति का चक्र
अटल अविकारी है,
कुछ भी न विलग
हो पाता उससे वसुधापर,
अक्षर न रह सका
है कुछ भी सब कुछ देखा
बस नियति-चक्र ही
एक अकेला है अक्षर।
पथ बाधाओं की
चिन्ता मैं करती न कभी,
बस जीवन का उद्देश्य
ध्यान में रहता है।
बहर बहतीं हैं
धाराएँ सहचरी सदा
आनन्द-सिन्धु
अन्तस में अविरल बहता है।
मैंने देखे वन-बाग
सफल ऐसे मानो,
हरिताम्बर ओढ़े खड़ी प्रकृति जीवन-तट पर
नयनों के दर्पण में
देखा प्रतिबिम्ब चपल
घूँघट के पट में
लट पर लटका पनघट पर।
सुमनांजलियों की भेंट
नित्य पायी मैंने,
गन्धिल धाराओं पर
तिरती सद्गन्धवती,
मादक सुगन्ध
प्राणों में भरती मादकता
मैं हो जाती सानन्द
सहज सौभाग्यवती।
लहरों से करती
गलबहियाँ मैं छगन-मगन
सुख सुधाधार को
पीती हूँ इठलाती हूँ।
क्षणभर को जाती भूल
व्यथा सब जीवन की
हो तमसमुक्त मैं
जीवन ज्योति जगाती हूँ।
सक्रियता में ही
जीवन का उत्कर्ष छिपा,
चुपके से मुझको
लहरों ने समझाया है।
निष्क्रियता संचित
करती रहती है विकार
इसलिए सतत गति को मैंने अपनाया है।
जड़-चेतन में
कुछ भी न कहीं ठहराव लिए,
सर्वत्र सूक्ष्म गति का
ही दर्षन पाया है।
ठहराव प्रलय है
और मरण है जीवन का-
मैंने समग्र जग को
सन्देश सुनाया है।
गति में नवीनता के
क्षण-क्षण दर्षन होते,
पग-पग पर नवता भेंट
हृदय हरषाती है,
सब कुछ अतीत की
घाटी में गिरता जाता
यह प्रकृति नित्य
नूतन आक्रीड सजाती है।
मैंने देखीं हैं
तुंग-तरंगें प्रलयोत्सुक,
जो जीवन का
कर अन्त अनन्त बनाती हैं।
धरती की अगणित
धारों का कर आलिंगन
सर्वग्रासी निज शक्ति
विशेष जगाती हैं।
ज्वालाओं-सी
उठती तरंग मालाओं में
होते विलीन जीवन के श्री सोपान सकल।
होता क्षण में
अस्तित्व हीन जग का वैभव
मिट जाता है वैविध्य
शेष रहता है जल।
मैंने जग का
माधुर्य सकल रस-रूप-रंग
खारिल ज्वारों में
विवश समाते देखा है।
जब क्रोधित होता
सागर मेरे जीवन पर
वडवाग्नि प्रज्वलित करता
मुझे जलाता है।
अवरुद्ध देख सब
पंथ प्राण की रक्षा के
हो विवश दग्ध हो
क्षणभर में मिट जाता है।
मैंने देखे हैं
मरण, महोत्सव जीवन के,
आँसू के सर में
खिले हुए आनन्द सुमन।
कीचड़ में हँसते हुए
कमल संकुल मोहक,
जलजावलियों पर
अलियों का मधुरिम गुंजन।
खुलते देखे दृग कमल
प्रभाती के मैने,
देखे हैं मुँदते हुए साँझ की बेला में।
जीवन के देखे विविध
रूप हैं जीवन में,
हैं मिले अनमिले
मुझको जीवन मेला में।
मैं देख रही
पल-पल परिवर्तन निर्निमेश
कुछ भी न यहाँ
पर दिखा एकरूपता लिए.
ठहराव हीन है
सतत काल की गति अबाध,
जिसने यथार्थ है दिया
उसी ने स्वप्न दिए.
वह कौन कहाँ से
करता जग का संचालन,
है देख रहा सबको
न दिखायी देता है।
देता है सबको
सबकुछ चुपके से परन्तु,
क्षणभर में जाने क्यों
सबकुछ हर लेता है?
मैं रही चंचला
किन्तु अमृत की धारा के
कण-कण में
ढूढा़ करती हूँ उस पावन को।
पा सकी न अब तक
किन्तु लिए विश्वास अटल,
जीवन धारा पर न्योछावर कर जीवन को।
जलरूप ब्रह्म की
सत्ता है जो निर्विचार,
जीवनदात्री है
महीयसी है उज्ज्वल है।
सौभाग्यवती मैं
उसके अंचल में रहती
क्षणभर भी होकर
विलग न मेरा मंगल है।
कुछ भी न अपरिचित
है मुझसे इस जगती का,
मैं उद्भव पालन प्रलय
निहारा करती हूँ।
मैं साक्षी हूँ,
निशि-दिवस प्रभाती सन्ध्या की,
मैं निखिल सृष्टि की
दृष्टि सवाँरा करती हूँ।
सम्पूर्ण समर्पण कर
अपना जीते जी ही,
श्रंगारित किया सहज
जीवन की धारा को।
यद्यपि विस्तृत है
जाल हमारा धरती पर,
मेरी सत्ता सर्वत्र
समुन्नत है अखण्ड।
पर जाने क्यों
जग जाल मुझे कस लेता है,
मैं मोहग्रस्त होकर दुख पाती हूँ प्रचण्ड।
यह जीवन-मोह
मुझे जीवन के साथ-साथ,
पहुँचाता रहा सदैव
दुखों की माया में।
प्राणों को ही
सर्वस्व मान इस अचिरा पर,
मैं जीवन जीती रही
मृत्यु की छाया में।
मैं जीवन की
रत्ना होकर उल्लसित हुई,
हैं साथ-साथ
वरदान और अभिशाप मिले।
श्रद्धा सम्मान मिला
जगती में एक ओर,
ते एक ओर
दुख दूषण के संताप मिले।
श्रद्धा की धारा में
पाकर आनन्द अमित,
मैं सभी दाह दुख
भूल क्षणों में जाती हूँ।
हो जाती हूँ मैं
मगन धार में जीवन की,
झूमती, नाचती,
गाती मोद मनाती हूँ।
मैं व्यर्थ गवाऊँगी न
समय अपना अमोल,
धूमिल अतीत का राग न और सुनाऊँगी।
गौरव गाथाओं से
समृद्ध प्रेरक विशेष
कुछ संस्मरणों की ओर
ध्यान ले जाऊँगी।
मेरे अतीत की
दीप्तिमती छवि है उज्ज्वल,
करते ही स्मरण
गौरवोन्नत होता मस्तक।
इतिहास मुखर होता
जीवन की लहरों से,
पाहुन बनते वे दृश्य
नयन होते अपलक।