मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ / श्यामनन्दन किशोर
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ।
थपकियों से आज झंझा
के भले ही दीप मेरा
बुझ रहा है, और पथ में,
जा रहा छाये अँधेरा।
पर न है परवाह कुछ भी,
और कुछ भी ग़म नहीं है
ज्योति दीपक को, तिमिर को,
पथ की पहचान दी है।
मैं लुटा सर्वस्व-संचित
पूर्ण भी हूँ, रिक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ।।
अग्नि-कण को फूँक कर,
ज्वाला बुझाई जा रही है
अश्रु दे दॄग में, जलन,
उर की मिटाई जा रही है।
इस सुलभ वरदान को मैं,
क्यों नहीं अभिशाप समझूँ?
मैं न क्यों इस सजल घन से,
है बरसता ताप समझूँ?
मैं मरूँ क्या, मैं जिऊँ क्या,
शुष्क भी हूँ, सिक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ।।
मैं तुम्हारे प्राण के यदि,
अंक में तो क्या हुआ रे?
है मनोरम कमल बसता
पंक में तो क्या हुआ रे?
मैं तुम्हारे जाल में पड़
बद्ध भी हूँ, मुक्त भी हूँ
मैं मधुर भी, तिक्त भी हूँ।।