मैं मध्यम काया का पादप / ऋता शेखर 'मधु'
मैं मध्यम काया का पादप
कल कल बहते सरित पुलिन पर
मैं मध्यम काया का पादप
पत्ते फूलों पर इतराता हूँ।
लचक लचक कर शाखें मेरी
जल नदिया का छू लेती हैं
पुलक पुलक कर मेरी पातें
रन्ध्रों से रस पी लेती हैं
अरुणाचल में देख लालिमा
पंछी आ बैठे डालों पर
कल कल बहते सरित पुलिन पर
मैं मध्यम काया का पादप
झूम झूम बतियाता हूँ।
कुशल बने तैराकों पर
सहज भाव से संजोए हैं
नन्हें नन्हें नीड कई
आ जाते हैं नवजीवन
भूल भूल कर पीड़ कई
कल कल बहते सरित पुलिन पर
मैं मध्यम काया का पादप
तीव्र बाढ़ के आ जाने से
उखड़ गया था झटके में
सीली गीली माटी से
जड़ को साथ लिए बहता
बीच बहाव में पड़ जाने से
कुछ सांसें थीं डूब रही
बन गया सहारा उनका
जैसे अपना हाथ बढ़ाता
एक छोटा-सा तिनका
कल कल बहते सरित पुलिन का
मैं मध्यम काया का पादप
बहते बहते चटक गया था
तट पर जाकर अटक गया था
सदियों तक सहता रहा
सर्दी गर्मी और धूप
सूख सूख कर काठ बना
बदल गया था रूप
काट काटकर लोग ले गये
बना जलावन चूल्हे का
देखी जब थाली में रोटी
मन सोंधा हो गया दूल्हे का
कल कल बहते सरित पुलिन का
मैं मध्यम काया का पादप
उखड़ गया तो क्या हुआ
बिखर गया तो क्या हुआ
काम किसी के तब भी आया
जीवन में अपना धर्म निभाया।