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मैं मशीन हूँ / विजय कुमार पंत

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लोहे के विशाल
जंगल
घर्र-घर्र , चीं-चीं
करती मशीनों
के बीच
कुछ सुनायी नहीं देता
पर मन सोचता
रहता है
जैसे
किसी "कन्वेयर" की
घुमती "पुल्ली" से
अचानक
निकल आओगी तुम
या कहीं
ऊँची धुवां उड़ाती
"चिमनियों" के ऊपर से
चिल्लाओगी तुम
पर सुबह से शाम हो जाती है
न तुम आती हो ,
न तुम्हारी आवाज़
आती है
फिर वहीँ चीं-चीं
और घर्र-घर्र की
आवाज़...
मैं थक कर चूर
लेता हूँ नीद मैं
खर्राटे….
मशीनों के तरह
बिल्कुल निरजीव ,संवेदनहीन