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मैं माँगूँ, तब तुम मिलो / रामगोपाल 'रुद्र'

मैं माँगूँ, तब तुम मिलो और क्षण मिले
तो कहो, तुम्हारापन इसमें क्या है!

यह तुम भी कह दो तो मैं कैसे मानूँ?
स्वेच्छित खिलने में तुमको अक्षम जानूँ?
मेरी चितवन पर तुम तो बनो न ऐसे
देखा ही कहीं नहीं हो मुझको, जैसे!
मँडराऊँ, तब तुम खिलो और मन खिले
तो कहो, तुम्हारापन इसमें क्या है!

दम साधे तुमको जगा रहा अपने में!
तुम बेसुध हो स्वर्णोदय के सपने में!
छेड़े अब तुमको भले किरन ही चंचल!
भर पाएँगे, बिन खुले, अलस मेरे दल!
गुंजारूँ, तब तुम हिलो और बन हिले
तो कहो, तुम्हारापन इसमें क्या है!