भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं मुशताक दीदार दी / बुल्ले शाह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घुँघट ओहले ना लुक सोहणिआ,
मैं मुश्ताक दीदार दी हाँ।
जानी बाझ दीवानी होई,
टोकाँ करदे लोक सभ्भोई।
जे कर यार करे दिलजोई,
मैं ता फरिआद पुकारदी हाँ।
मैं मुश्ताक दीदार दी हाँ।

मुफ्त बिकान्दी बान्दी जान्दी,
मिल माहीआ जिन्द ऐवें जान्दी।
इकदम हिजर नहीं मैं सहिन्दी,
मैं बुलबुल इस गुल्ज़ार दी हाँ।
मैं मुश्ताक दीदार दी हाँ।

घुँघट ओहले ना लुक सोहणिआ,
मैं मुशताक दीदार दी हाँ।

शब्दार्थ
<references/>