मैं मेरी छतरी और वो / हरेकृष्ण डेका
नदी के किनारे सीमेण्ट की बेंच पर बैठा हूँ,
बग़ल में मेरी छतरी रखी है,
स्टीम बोट से उस पार जाना है।
बेंच के एक सिरे पर मैं हूँ, दूसरे पर वो,
सिर के बेतरतीब बाल उसकी आँखों को ढके हैं लगभग,
चेहरा दाढ़ी-मूछों के झंखाड़ से भरा।
वो काग़ज़ पर रखकर चने खा रहा है ,
काग़ज़ किसी पत्रिका का फाड़ा हुआ पन्ना है।
चने मुँह में टपकाते बार-बार मेरी ओर देखता है,
बेंच पर क्रमशः मैं, छतरी और वो।
एकदम से वह चीख़ना शुरू कर देता है —
कवि है तू। कवि है तू? कवि है तू!
एक ही बात मंतव्य, प्रश्न और उपहास
के तीन स्वरों में।
पत्रिका से फाड़े पन्ने पर मेरा ही साक्षात्कार छपा है,
फोटो छपी है साथ में।
मेरे कुछ कहने के पहले ही वह फिर बोलने लगता है —
लाठी से कविता लिख सकता है?
या बन्दूक से?
उसके झोले से एक मग प्रकट हुआ अब,
टूटे हैण्डल वाला,
उसे दिखाकर बोला — तेरी कविता में ये मग है?
हथेलियों से मुँह ढककर खुक-खुक खाँसने लगा,
फिर मुंह से हटाकर हथेलियाँ मेरे सामने कर दीं —
तेरी कविता में ऐसा ख़ून है क्या?
दोनों हथेलियाँ बलग़म और ख़ून से लिथड़ी थीं।
रास्ते पर सायरन बजा,
वी०आई०.पीओ काफ़िला था,
गुज़रते क़ाफ़िले की दिशा में उसने थूका,
लाल बलग़म हवा में लहराकर ज़मीन पर गिरा,
इससे अनभिज्ञ वी० आई० पी० क़ाफ़िला निकल गया।
सीमेण्ट की बेंच के दो सिरों पर हम बैठे रहे।
उसने छतरी की तरफ़ उंगली से इशारा किया —
ये तेरी छतरी है। मेरी छतरी देखेगा?
अपने झोले में भरे कबाड़ के अन्दर से ढूँढ़कर
उसने अरवी का बड़ा पत्ता निकाला और
सिर पर उसे ओढ़कर नाचने लगा।
स्टीमर से मैं उस पार गया,
आधी नदी पार कर याद आया
कि छतरी भूल आया हूं।
लौटानी में भी वो सीमेण्ट की बेंच पर बैठा मिला,
सिर पर मेरी छतरी ताने।
मैंने उससे कहा, ये छतरी मेरी है।
वह निर्विकार। वैसे ही छतरी ताने रहा, बोला —
यह मेरा राजछत्र है,
कुछ इस भंगी में मानो सीमेण्ट की बेंच उसका सिंहासन हो
और वह कोई एकछत्र सम्राट।
मैं कुछ बोल नहीं पाया,
घर लौटा बारिश में ख़ूब भीग-भागकर।
रात में कविता लिखने के लिए काग़ज़-क़लम निकाले।
मैंने लिखा — मैं, मेरी छतरी और वो। उहूँ,
काॅमा हटाना पड़ेगा,
मैं मेरी छतरी और वो। लेकिन
वाक्य फिर भी अपूर्ण है।
मेरी छतरी एक क्रियापद ढूँढ़ने उसके सिर पर जा पहुँची,
इधर मैं उसके अरवी पत्ते को वाक्य में कहाँ रखूँ
यह ढूँढ़ नहीं पाया।
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित