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मैं मौन हूँ / मृत्युंजय कुमार सिंह

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हवा की सवारी करते
बरफ की चोटियों पर
लोट-पोट करते बादलों की टोली,
नीचे, घाटी में
सैलानियों के बोझ से
टलमल करती मनाली
भुरभुरे उड़ते बरफ के कण
जैसे उदारता से झड़े
श्वेत स्वेद,
भुलाकर विगत का खेद

पहाड़ी ढलान पर
हरे मैदानों में चरते
झुंड के झुंड भेड़
जैसे बेतरतीब सरकते
खेतों के मेड़,
और उनको हाँक लगाता
अपने को गरम थगरी में
लपेटे, गड़ेरिया,
न जाने किस धुन में फँसा
गाता कुछ लोरियाँ

यहाँ-वहाँ, खोह से
या पहाड़ों से लटकते नालों से
समतल को खोजते
लुढ़कते जल-प्रपात,
धोते हुए मन के आघात

घास के कंधे पकड़
पीले, नारंगी, बैगनी, सफेद, लाल
बूटों-से सजे जंगली फूल,
आस के जैसे अंतिम मूल

कुछ
तुम्हारी याद की तरह
रह-रह उभरती
धूप की नरम गरमी,
पसीने का इतिहास गढ़ती

दिशाओं को
अपनी बाँह में कसे
पहाड़
कटे-फटे जबड़ों से पकड़े,
अड़े, पत्थर
संकल्प से भी गुरुतर
किसी भावना में पगे
लिए खड़े हैं तेरा विस्तार,
शून्य से जगत तक जीने के
सारे विचार

मैं मौन हूँ
क्योंकि
मैं यहाँ भी गौण हूँ।