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मैं यशोधरा बोल रही हूँ (कविता) / संजय तिवारी

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तुम चले गए
बिना बताये
बिना कुछ कहे
लेकिन मेरी भी तो नहीं सुनी तुमने
मैंने जरूर कुछ कहा होता
तुम्हर जो डर था
वैसी नहीं हूँ मैं?
बहुत कुछ रह गया
जो कहना था
जो सुनना था
जिसे सोचना था
जिसे जानना था?
तुमने जो जाना
वह तुम्ही जानो
लेकिन मुझे तो
बहुत कुछ जानना था
अब करू भी तो क्या?
तुम अब केवल कहने वाले बन गए
लोग सुनने वाले?
या कि तुम्हें गुनने वाले?
अब तुम्ही बोलो
क्या कारु उन प्रश्नो का?
कैसे खोजूँ
उत्तर
तुम जब से बुद्ध बने
मेरे प्रश्न यथावत
अनुत्तरित कर रहे हैं
एक प्रतीक्षा
सिद्धार्थ?
सुनते तो हो न?
तो सुनो
मैं
यशोधरा बोल रही हूँ