मैं रस की बरखा कर लूँगा / बलबीर सिंह 'रंग'
मैं रस की बरखा कर लूँगा, तुम अपना उर-आँगन दे दो।
बेचारा बादल क्या जाने,
तप्त धरा की प्यास कहाँ है?
भू को पता नहीं रस-रंजित
मेघों का अधिवास वहाँ है?
दोनों की पहचान पुरानी
फिर भी मिलन नहीं होता है,
थोड़ी सी दूरी कम कर दे
दुनिया को अवकाश कहाँ है?
चिर-विछोह स्वीकार करूँगा, मिलने का आश्वासन दे दो।
मैं रस की बरखा...
नन्दन-कानन की सुषमा भी
सूनी-सूनी बिना तुम्हारे,
कब तक सहूँ दुसह यह पीड़ा
और रहूँ कब तक मन मारे?
कलियों तक अलियों का गुँजन
अब तक पहुँच नहीं पाया है,
चातक का दूरागत क्रन्दन
कब सुन पाते, घन कजरारे?
मैं पढ़ लूँगा मंत्र कान में, अधरों तक चन्द्रानन दे दो।
मैं रस की बरखा...
धरती और गगन का मैंने
मुग्ध कर लिया कोना-कोना,
पर मेरे भोले मन-मृग पर
कौन कर गया जादू-टोना?
मरुथल की उर्वरा पिपासा
सागर को दे रही चुनौती,
अनहोनी यह घटी न घटना
हुआ वही जो कुछ था होना।
मैं दुर्गम पथ तय कर लूँगा, चरणों का अवलम्बन दे दो।
मैं रस की बरखा...