भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं रूठे दिलों को मनाने चली हूँ / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं रूठे दिलों को मनाने चली हूँ।
नया एक सूरज उगाने चली हूँ॥

बहुत दूर पर ज़िन्दगी हँस रही है
है मुझसे ही रूठी मनाने चली हूँ॥

कदम लड़खड़ाने लगे रास्तों पर
सहारे को लाठी उठाने चली हूँ॥

यहाँ झूठ का हो गया बोलबाला
मैं सच की मशालें जलाने चली हूँ॥

पथिक साथ के बन गये सब लुटेरे
उन्हीं से स्वयं को बचाने चली हूँ॥

नहीं साथ देता किसी का है कोई
मैं खुद बोझ अपना उठाने चली हूँ॥

न मंदिर न मस्जिद न कोई शिवाला
निराकार प्रभु को लुभाने चली हूँ॥