मैं रोज अस्त होकर उदित होती हूँ / मनीषा जैन
मैं रोज सूरज की तरह अस्त होती हूँ
मैं रोज सितारों की तरह जगमग करती हूँ
मेरे भीतर रोज न जाने कितने चांद जन्म लेते है
मेरे भीतर रोज ज्वालामुखी विस्फोट होती हैं
मै सूरज के पार जाना चाहती हूँ
मैं रोज सूरज का लाल रंग अपनी माँग में भरती हूँ
तुम मुझे उदित होने से कैसे रोकोगे
मै तो हवाओं के संग उड़ती हूँ दूर बहुत दूर
मैं नदियों की लहरों पर रहती हूँ
मैं भविश्य की धरती के गर्भ से फिर से जन्म लूंगी
तुम मुझे जन्म लेने से कैसे रोकोगे
मैं बारिश की बूंद बन कर माटी में जज्ब़ हो जाउंगी
मैं पेड़ की जड़ से फिर से जन्म लूंगी
मैं धूप को आँजती हूँ अपनी आँखों में
आसमान में फिरती हूँ
मैं स्वछंद बादल सी
तुम मुझे कहां तक ढूंढोगे
जब मेरा अस्तित्व नहीं होगा
तब तुम्हें कौन जन्म देगा
इसीलिए मैं तो रोज अस्त होकर
रोज उदित होती हूँ सूरज की तरह।
(लेखिका विपिन चौधरी की पुस्तक ‘रोज उदित होती हूँ’ के शीर्शक से प्रेरित होकर)