मैं लिखता हूँ गीत / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
मैं लिखता हूँ गीत कि
तुम अपने स्वर में दुहरा दो
तुम पाओगे इसमें अपने
अन्तर की परिछाई
शीतलता जल के समान
ओ, ताप आग की नाई
तुम देखोगे इसमें जगके
अन्तर की अभिलाषा
आकुल प्राण अलाप रहे हैं
आकुल मन की भाषा
ओ पूनम के चाँद! हृदय-
सागर को फिर लहरा दो
मैं लिखता हूँ गीत कि
तुम अपने स्वर में दुहरा दो
प्रतिविम्बित इसमें पाओगे
जग की क्रूर कहानी
मानवता की नंगी प्रतिमा
पर कुछ अजब निशानी
जो मनुष्य के स्वार्थ-पिण्ड का
एक दमकता तारा
काला सा पड़ता जाता है
छूता क्षितिज किनारा
नियमों कौ बढ़ने दो आगे
युग को कुछ ठहरा दो
मैं लिखता हूँ गीत कि
तुम अपने स्वर दोहरा दो
पाकर अनुपम प्यार प्रकृति-
से भी न मिली कोमलता
शरद चाँदनी में धुलकर भी
मिल न सकी निर्मलता
जीवन सा अनमोल रतन धन
मुफ्त लुटा जाता है
दुर्बलता बढ़ती जाती है
मोह जुटा जाता है
आज द्रोह के गढ़ पर करूणा
का झण्डा फहरा दो
मैं लिखता हूँ गीत कि
तुम अपने स्वर में दुहरा दो
दिन पर दिन बढ़ती जाती है
मानव की शैतानी
तुम प्रलयकर फिर-सन्धानो
राग नया तूफानी
यह विज्ञानी इठलाता है
पाकर नूतन साधन
यह अभिमानी अब करता है
पशु - बल का आराधन
अहंकार हर, झहर - झहर
फिर शान्ति सुधा झहरा दो
मैं लिखता हूँ गीत कि
तुम अपने स्वर दुहरा दो