मैं लिख रहा हूँ / के० सच्चिदानंदन
गली में गिरी सुबह की ओस पर
मैं लिख रहा हूँ तेरा नाम
जैसे पहले भी किसी कवि ने
लिखा था नाम- स्वतंत्रता का
हरेक चीज़ पर।
तेरा नाम लिखने लगा तो
मिटाना कठिन हो जाएगा
धरती और आकाश पर
क्रांति के साथ
प्रेम के लिए भी जगह है
तेरे नाम की सेज पर
सो रहा हूँ मैं
तेरे नाम की चहचहाट के साथ
जागता हूँ मैं
जहाँ-जहाँ मैं स्पर्श करता हूँ
उभर आता है तेरा नाम
झरते पत्तों के घसमैले रंगों पर
प्राचीन गुफाओं की स्याह दीवारों पर
कसाई की दुकान के दरवाज़े पर
गीले रंगों पर
ताज़े लहू पर
जुत रहे खेतों पर
चांदनी के फड़फड़ाते पंखों पर
काफ़ी और नमक पर
घोड़े की नाल पर
नृतकी की मुद्रा पर
तारों के कंधों पर
शहद औ’ ज़हर पर
नींद पर, रेत पर, जड़ों पर
कुल्हाड़ी पर, बन्दूक की गोली पर
फांसी के तख़्ते पर
मुर्दाघर के ठंडे फर्श पर
श्मशान-शिला की चिकनी पीठ पर।
अनुवाद : डा० विनीता / सुभाष नीरव