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मैं लुटा रहा हूँ दिल अपना / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
मैं लुटा रहा हूँ दिल अपना, जो दिल चाहे, ले, लूट ले!
आँखों के मेले में भूली आँखों पर आँखें झूल गई;
खेली आँखों के खेलों में भोली आँखें सन भूल गई;
धूली ही धूली थी, फिर भी, उसमें था वह काला जादू
तितलियाँ उतर आईं पाँखों, आँखों में सरसों फूल गईं;
बोला बसन्त रसिया जो हो, आवे, रस का यह घूँट ले!
मैंने भी जो चख लिया ज़रा, आँखों के डोरे लाल हुए;
काँटों में खून उतर आया, बुलबुल के गीत निहाल हुए;
पानी में फूट पड़े शोले तो मीनों ने मुझको ताका;
मेरा सुरूर यों चढ़ा कि सब मौसिमी साज बेताल हुए;
दिलदार दर्द ने ललकारा जो सुर में हो, यह छूट ले!