भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं लौट रहा हूँ / विवेक निराला

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ लोग
युद्ध जीत कर लौटते हैं
कुछ वहीं मारे जाते हैं
जिनके लौटते हैं शव
कुछ ऎसे होते हैं
जो पीठ दिखाकर लौटते हैं:
किसी संग्राम से मैं लौट रहा हूँ।

मैं लौट रहा हूँ
हिंसा से विचलित होकर नहीं
मृत्यु के भय से नहीं।

अपने ही प्रिय युद्ध-क्षेत्र से
अपने न पहचाने जाने की
नि:स्वार्थ अनन्त इच्छाओं के साथ
मैं लौट रहा हूँ
दोनों हाथों से चेहरे को छिपाए
पिछले कर्मों पर
लीपा-पोती करता हुआ।