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मैं वनवासी होता! / तरुण

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स्वस्थ धमनियों में, वसन्त के स्वर्ण भोर-सा राता,
बरसाती झरने-सा मेा लाल रक्त लहराता!
वज्रसार फौलादी चौड़ी छाती लिये अकेला-
मांसपेशियों को चमकाता चलता मैं अलबेला,
तूफानी नदियों को करता पार-लगाकर गोता!
मैं बनवासी होता!

जीवन होता यों-कि किसी ने सुना, न अब तक देखा,
मेरा होता राज, जहाँ तक खिंची क्षितिज की रेखा!
घने जंगलों में से जाता सिर पर रख कर बोझा,
बैठ बजाता मैं झरनों के तीर कहीं अलगोजा;
डाल तरकशी चट्टानों पर, कहीं पड़ा मैं सोता!
मैं वनवासी होता!

मैं असभ्य रहता, मन में परमेश्वर से भय खाता,
झरना, पेड़, पहाड़, चाँद, सूरज को शीश झुकाता!
मैं अनादि संगीत विश्व का सुनता धीर पवन से,
पा जाता आलोक सूर्यचन्दा की शुभ्र किरण से,
ज्योति-विनाशक ग्रन्थ-भार पृथु, मैं न पीठ पर ढोता!
मैं वनवासी होता!

श्यामा-चौड़े और रसीले नयनों को फैलाये-
खड़ी जोहती बाट, वन्य कुसुमोंसे अलक सजाये।
सिन्धु और आकाश सदृश, सम्मुख खोले चौड़े मन-
सिन्धु-तरंगों-से बल खाते, उमड़ाते आलिंगन!
महाजागरण होता मेरा, जाग्रत जग यह सोता!
मैं वनवासी होता!

एक ओर गर्वोन्नत पर्वत, इधर मृत्यु की खाई,
ऐसी पगडण्डी चलता-दे प्रिया-कण्ठ, गलबाँही!
झबरे बाल बिखेर, मार चिंघाड़, खींच प्रत्यंचा-
जबड़े दबा, लाल आँखों से शत्रु चबाता कच्चा,
जीवन का सारा रस पीता-धरती समझ कठौता!
मैं वनवासी होता!

कुसुम-कीट-सा हाय, सभ्यता ने मुझको चर डाला,
मन पर जाला, मुख पर ताला, और हँसी पर पाला!
मैं प्रकाश का अमर पुत्र, हा! मुक्ति-लोक का प्राणी-
आज रह गया-भूल उड़ानें मुक्त, रसीली वाणी-
दूध-भात के लिए स्वर्ण-पिंजरे का बन कर तोता!
मैं वनवासी होता!

1955