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मैं वापस आऊँगा / शहराम सर्मदी

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ग़ार-ए-हरा-ए-शायरी में
बैठने जाता हूँ मैं
और मैं हिसार-ए-ज़ात भी कर के रखूँगा
इस हिसार-ए-ज़ात के बाहर
कोई भी दाश्ता शोहरत की
शहर-नौ लगा बैठे न अपना
देखते रहना

न करना इन्तिज़ार इस का
कि मैं ताज़ा सहीफ़ा लाने वाला हूँ
कि हर ताज़ा सहीफ़ा
एक दिन मंसूख़ होना है
उसे वो मअनी-ओ-मफ़्हूम खोना है
जो असल मुद्दआ है
मैं वापस आऊँगा
और मैं 'किताब-ए-ज़ात' इक हम-राह लाऊँगा

'किताब-ए-ज़ात' की हर आयत
इनसानी मसाइल का बयाँ होगी
तलाश-ए-हल के मारों की
उमीदों का ज़ियाँ होगी

मसाइल जावेदाँ हैं
ज़ात का असल-ए-बयाँ हैं
और फ़रार उन से बला है
और यही रम्ज़-ए-तलाश-ए-'आँ-ख़ुदा' है
और तलाश-ए-'आँ-ख़ुदा' आईना-हा-ए-ज़िन्दगी
और ज़िन्दगी ग़ार-ए-हिरा है ज़ात-ए-इन्साँ की

इसी ग़ार-ए-हिरा में जब
मयस्सर ज़ात आएगी
मैं वापस आऊँगा
और मैं 'किताब-ए-ज़ात' इक हम-राह लाऊँगा
कोई भी दाश्ता शोहरत की
शहर-ए-नौ लगा बैठे न अपना
देखते रहना