भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं विहँसता चल रहा हूँ / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं बिहँसता चल रहा हूँ हार पर!

कौन यह पंछी? चमन में शोर है;
हर सुमन-मन में समाया चोर है;
हर कली मुद्रा बनी है प्रश्‍न की;
एक कौतूहल जगा सब ओर है;
गुल खिलाता चल रहा हूँ ख़ार पर।

छाँव आँखों में किसी की है घनी,
चाह प्राणों में अँगारे-सी बनी;
चाँद अब आवे न आवे, ग़म नहीं;
छन रहे आँसू नज़र है चाँदनी;
पल रहा हूँ मैं मधुर अंगार पर।