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मैं शहर में पत्थर के हूँ इक पैकरे-जज़्बात / रमेश 'कँवल'

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मैं शहरमें पत्थर के हूं इक पैकरे-जज़्बात
ऐ काश! मिले कोर्इ जो समझे मेरे हालात

रूत मस्त है,भीगी है हवा, चांदनी है रात
आ जाओ तुम ऐसे में लिये प्यार की सौग़ात

सहमी हुर्इ सांसों की थकन, मौत की घातें
किस मोड़ पे ले आर्इ है अरमानों की बारात

भटके है बहुत अहले-ख़िरद1 गलियों में तेरी
इस तरह न हंस, दे के जुनूं2 की हमें सौग़ात

घबराओ न ऐ गर्दिशे-अय्याम3 के मारो
अब ग़म के फ़साने में हैं दो चार ही सफ़्हात4

खोया हुआ हर शख़्स है दुख-दर्द में अपने
आ जा ये कोर्इ काश लिये ख़ुशियों की बारात

ये तल्ख़ी-ए-हालात सताती है 'कंवल’ जब
याद आते हैं माज़ी5 के महकते हुये लम्हात6


1. बुद्धिवालों 2. उन्माद 3. समयकाचक्र 4. पृष्ट-पन्ना
5. भूतकाल 6. पल, क्षण।