भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं शहर हूँ / निशान्त जैन
Kavita Kosh से
मुस्कानों का बोझा ढोए,
धुन में अपनी खोए-खोए
ढूँढता कुछ हर पहर हूँ।
मैं शहर हूँ।
बेमुरव्वत भीड़ में,
परछाइयों की निगहबानी,
भागता-सा हाँफता-सा
शाम कब हूँ, कब सहर हूँ,
मैं शहर हूँ।
सपनों के बाजारों में क्या,
खूब सजीं कृत्रिम मुस्कानें,
आँखों में आँखें, बातों में बातें,
खट्टी-मीठी तानें,
नजदीकी में एक फासला,
मन-मन में ही घुला जहर हूँ।
मैं शहर हूँ।
मन के नाजुक से मौसम में,
भारी-भरकम बोझ उठाए,
कागज की किश्ती से शायद,
हुआ है अरसा साथ निभाए,
खुद के अहसासों पर तारी,
हूँ सुकूँ या फिर कहर हूँ।
मैं शहर हूँ।