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मैं शायर हूँ ज़बाँ मेरी कभी उर्दू कभी हिंदी / सतपाल 'ख़याल'
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मैं शायर हूँ ज़बाँ मेरी कभी उर्दू कभी हिंदी
कि मैंने शौक़ से बोली कभी उर्दू कभी हिंदी
न अपनों ने कभी चाहा यही तकलीफ़ दोनों की
हैं बेबस एक ही जैसी कभी उर्दू कभी हिंदी
अदब को तो अदब रखते ज़बानों पर सियासत क्यों
सियासत ने मगर बाँटी कभी उर्दू कभी हिंदी
न लफ़्ज़ों का वतन कोई न है मज़हब कोई इनका
ये कहते हैं फ़कत दिल की कभी उर्दू कभी हिंदी
महब्बत है वतन उसका , ज़बाँ उसकी महब्बत है
‘ख़याल’ उसने ग़ज़ल कह दी कभी उर्दू कभी हिंदी.