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मैं शीशे की तरह गर टूट जाता / ज्ञान प्रकाश विवेक
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मैं शीशे की तरह गर टूट जाता
वो पलकों से मेरी किरचें उठाता
उसे भी तैरना आता नहीं था
मुझे वो डूबने से क्या बचाता
मेरी मजबूरियाँ हैं दोस्त वरना
किसी के सामने क्यूँ सर झुकाता
ये दस्ताने तेरे अच्छे हैं लेकिन
तू मुझसे हाथ वैसे ही मिलाता
खड़ा हूँ साइकिल लेके पुरानी
नये बाज़ार में डरता-डराता
अगर होता मैं इक छोटा-सा बालक
तो फिर कागज़ के तैय्यारे बनाता
वो रिश्तों को कशीदा कर गया है
मिला है मुझसे लेकिन मुँह चिढ़ाता.