मैं शेर कहता हूँ तो इंक़लाब बोलता है / रमेश तन्हा
मैं शेर कहता हूँ तो इंक़लाब बोलता है
मिरी हयात का हर एक ख़्वाब बोलता है।
जो सर में धुंद हो तो इजतिराब बोलता है
ब-फ़ैज़-ए-कर्ब-ए-महब्बत अज़ाब बोलता है।
चले तो जानिब-ए-सहरा जुनूँ-गाज़ीदा कोई
तो दश्त बोले न बोले सराब बोलता है।
हर इक सवाल का होता है सिर्फ एक जवाब
हर इक सवाल में उसका जवाब बोलता है।
तलाश-ए-हक़ में कहां तक खपाये सर कोई
खबर को ढूंढने निकलो तो ख़्वाब बोलता है।
सफ़र हयात का जश्न-ए-तरब है या क्या है
क़दम क़दम पे नफ़स का रबाब बोलता है।
जो बात दिल में हो आंखों में आ ही जाती है
अगर हो आइना सच्चा तो आब बोलता है।
किस इहतमाम में बरहम है शब की तन्हाई
सितारे बोलते हैं, माहताब बोलता है।
बहुत से काम मियां! बे-सबब भी होते हैं
समन्दरों पे भी अक्सर सहाब बोलता है।
जल है जो उसे बुझना ही होता है आखिर
किताबे-ज़ीस्त का हर एक ख़्वाब बोलता है।
इस आइने को मैं झूठा कहूँ तो कैसे कहूँ
ये आइना जो तुझे ला-जवाब बोलता है।
ज़माने वालों ने समझा है कैक्टस मुझको
मिरे ज़मीर में लेकिन गुलाब बोलता है।
तिरी ग़ज़ल है हक़ायक़ का आइना 'तन्हा'
तिरी ग़ज़ल में तिरा इंतिख़ाब बोलता है।