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मैं सब दिन पाषाण नहीं था / नरेन्द्र शर्मा

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मैं सब दिन पाषाण नहीं था

किसी शापवश हो निर्वासित,
लीन हुई चेतनता मेरी;
मन-मन्दिर का दीप बुझ गया,
मेरी दुनियाँ हुई अँधेरी
मेरा उजड़ा उपवन सब दिन बियाबान सुनसान नहीं था।
मैं सब दिन पाषाण नहीं था।

मेरे सूने नभ में शशि था,
थी ज्योत्स्ना जिसकी छवि-छाया;
जीवित रहती थी जिसको छू,
मेरी चन्द्रकान्तमणि काया,
मलिन खाते मलिन ठीकरे-सा तब मैं निष्प्राण नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!

था मेरा भी कोई, मैं भी
कभी किसी का था जीवन में,
बिछुड़ा भी पर भाग्य न बिगड़ा,
रही मधुर सुधि जब तब मन में ,
पर क्या से क्या बन जाऊँगा, इसका कभी गुमान नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!

मैं उपवन का ही प्रसून हूँ,
किसी गले का हार बना था;
मेरी वह स्मिति थी, उसका भी,
मैं हँसता संसार बना था,
मिले धूलि में दलित कुसुम सा, मैं सब दिन म्रियमाण<ref>मृत प्राय, मरा हुआ सा</ref> नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!

मैं तृण सा निरुपाय नहीं था,
नल में डालो भ जाए जो,
और डाल दो ज्वाला में यदि,
क्षणिक धुआँ बन उड़ जाए जो,
आज बन गया हूँ जैसा कुछ, सब दिन इसी समान नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!

मेरा नाम अरुणिमा सा ही
रहता था उसके अधरों पर,
झूम-झूम उठता था यौवन,
मेरी पिक के मधुर स्वरों पर,
मुझमें प्राण बसे थे उसके, मेरा मृणमय<ref>मिटटी का</ref> गान नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!

शब्दार्थ
<references/>