मैं समन्दरों का मिज़ाज हूँ / अशोक 'मिज़ाज'
मैं समन्दरों का मिज़ाज हूँ, अभी उस नदी को पता नहीं,
सभी मुझसे आके लिपट गयीं, मैं किसी से जाके मिला नहीं।
मेरे दिल की सिम्त न देख तू, किसी और का ये मुक़ाम है,
यहाँ उसकी यादें मुक़ीम हैं, ये किसी को मैंने दिया नहीं।
मुझे देखकर न झुका नज़र, न किबाड़ दिल के तु बंद कर
तेरे घर में आऊँगा किस तरह, के मैं आदमी हूँ हवा नहीं।
मेरी उम्र भर की थकावटें, तो पलक झपकते उतर गयीं,
मुझे इतने प्यार से आज तक, किसी दूसरे ने छुआ नहीं।
मेरे दिल को ़ख़ुशबू से भर गया, वो क़रीब से यूँ गुज़र गया,
वो मेरी नज़र में तो फूल है, उसे क्या लगा मैं पता नहीं।
ये मुक़द्दरों की लिखावटें, जो चमक गयीं वो पढ़ी गयीं,
जो मेरे क़लम से लिखा गया, उसे क्यूँ किसी ने पढ़ा नहीं।
ये ‘मिज़ाज’ अब भी सवाल है, कि ये बेरूख़ी है कि प्यार है,
कभी पास उसके गया नहीं, कभी दूर उससे रहा नहीं।