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मैं समुद्र-तट पर उतराती / अज्ञेय
Kavita Kosh से
मैं समुद्र-तट पर उतराती एक सीपी हूँ, और तुम आकाश में मँडराते हुए तरल मेघ।
तुम अपनी निरपेक्ष दानशीलता में सर्वत्र जो जल बरसा देते हो, उस की एक ही बूँद मैं पाती हूँ, किन्तु मेरे हृदय में स्थान पा कर वही मोती हो जाती है।
मैं समुद्र-तट पर उतराती एक सीपी हूँ, और तुम आकाश में मँडराते हुए तरल मेघ।
हमारे जीवन एक-दूसरे से एक अपरिहार्य बन्धन में बँधे हुए हैं जिस की प्रेरणा है तुम्हारी शक्ति और मेरी व्यथा में एक अमूल्य रत्न की उत्पत्ति करना; किन्तु फिर भी तुम मुझ से कितनी दूर हो, कितने स्वच्छन्द, और मैं इस विशाल समुद्र से कैसी घिरी हुई, कितनी क्षुद्र!