भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं सूरज पचा लेता हूं / ओम पुरोहित ‘कागद’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं
हथेली में हर दिन
सूरज सहेज कर रखता था।
जब भी कभी मुझे
तपिश का अहसास हुआ
या
जमाने को लगा
कि, मैं
सृष्‍टि की अमूल्य निधि का
अकेला सेवन कर रहा हूं।
मैं हर बार
उनकी आंख ताड़ गया
बस,
अगले ही क्षण
मैं सूरज निगल गया ।
जमाना तो खुश हुआ
मेरी सहन शक्ति
जमाना भक्ति पर
.......लेकिन सूरज!
सूरज, आज भी टपकता है
मेरी आंख से
आंसू बन कर।

अब तो
गुण-सूत्रों तक में
ढ़ल गया है सूरज,
तभी तो
मैं देखता हूं
कि, मेरी हर रचना,
पेट में
सूरज लेकर जन्मती है।

मैं
सूरज पचा लेता हूं।
इसी लिए हर रात
एक नया सूरज
अपने सीने पर रख कर सोता हूं।
बस यही कारण हैं;
मेरा हर मित्र
नातेदार
सहकर्मी
सूरज के लिए खड़ा है
मेरी हथेली पर
रख देने
और मैं....!
इन असंख्य सूर्यों के बीच,
एक उपग्रह सा
ठहरा हुआ हूं;
परिक्रमण
परिभ्रमण को।
हर सूरज के
परिक्रमा
परिभ्रमण
पथ पर
तपिश-दर-तपिश
सहने को।