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मैं हँसता था कभी / पवन चौहान
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मैं हँसता था कभी
दूजे की पीड़ा देखकर
नहीं जानता था उनका दर्द
डाक्टरों की फीस
दवाई का खर्च
बदहवास से दौड़ते-भागते कदमों की छटपटाहट
मंदिर की चौखट पर
भीख मांगते जिंदगी की जो
जिंदगी का अपनी वास्ता देकर
मैं कभी समझ नहीं पाया उनकी व्यथा
करते रहे सेवा जो
अपना सुख चैन त्याग कर
फैलाते रहे हाथ मद्द के लिए
अपना दंभ छोड़कर
जो बैठे रहे मौन
संग ऑंसु की धारा लेकर
कोसते रहे भाग्य
करते रहे विलाप छुपकर
मैं शब्दों का जाल बुनकर
करता रहा मजाक
बढ़ाता रहा उनकी पीड़ा
आज...
मेरी हँसी मर चुकी है
हर मजाक सो चुका है गहरी नींद
रोगग्रस्त मौन पड़ा यहाँ
कर रहा हूँ
मरी हँसी को जीवित करने का असफल प्रयास।