मैं हर जगह था वैसा ही / अशोक कुमार पाण्डेय
मैं बम्बई में था
तलवारों और लाठियों से बचता-बचाता भागता-चीखता
जानवरों की तरह पिटा और उन्हीं की तरह ट्रेन के डब्बों में लदा-फदा
सन साठ में मद्रासी था, नब्बे में मुसलमान
और उसके बाद से बिहारी हुआ
मैं कश्मीर में था
कोड़ों के निशान लिए अपनी पीठ पर
बेघर, बेआसरा, मज़बूर, मज़लूम
सन तीस में मुसलमान था
नब्बे में हिन्दू हुआ
मैं दिल्ली में था
भालों से बिंधा, आग में भुना, अपने ही लहू से धोता हुआ अपना चेहरा
सैंतालीस में मुसलमान था
चौरासी में सिख हुआ
मैं भागलपुर में था
मैं बड़ौदा में था
मैं नरोड़ा-पाटिया में था
मैं फलस्तीन में था अब तक हूँ वहीं अपनी कब्र में साँसें गिनता
मैं ग्वाटेमाला में हूँ
मैं ईराक में हूँ
पाकिस्तान पहुँचा तो हिन्दू हुआ
जगहें बदलती हैं
वज़ूहात बदल जाते हैं
और मज़हब भी, मैं वही का वही!