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मैं हारा या तुम हारे / संजीव 'शशि'

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बहुत दूर तक साथ-साथ हम चल न सके।
क्या करना अब मैं हारा या तुम हारे॥

लिखा हुआ जो दिल पर नाम तुम्हारा है,
लाख जतन करके भी मिटा नहीं पाये।
बसा हुआ नयनों में चित्र तुम्हारा है,
कोशिश करके भी तो हटा नहीं पाये।
फिर क्यों हाथ तुम्हारा मुझसे छूट गया,
प्रश्न निरुत्तर होकर भटक रहे सारे॥

पल भर के आवेशित क्षण जी कर हमने,
आखिर क्या खोया है हमने क्या पाया।
अपने-अपने अभिमानों में रहकर के,
अपने सर से खोयी प्रीत भरी छाया।
जीवन पथ पर आज अकेले सोच रहे,
क्यों कर ऐसे निर्णय हमने स्वीकारे॥

अब भी है उम्मीद प्रिये तुम आओगे,
ठहरी सी हैं आँखें अब भी द्वारे पर।
अब भी करे प्रतीक्षा मेरा व्याकुल मन,
यादों का दीपक मन की देहरी पर धर।
यहाँ अकेला मैं हूँ वहाँ अकेले तुम,
ढूँढ रहे बीते पल-छिन प्यारे-प्यारे॥