मैं ही इक शख़्स था यारान-ए-कोहन में ऐसा / 'फ़ज़ा' इब्न-ए-फ़ैज़ी
मैं ही इक शख़्स था यारान-ए-कोहन में ऐसा
कौन आवारर फिरा कूचा-ए-फ़न में ऐसा
हम भी जब तक जिए सर-सब्ज़ ही सर-सब्ज़ रहे
वक़्त ने ज़हर उतारा था बदन में ऐसा
ज़िंदगी ख़ुद को न इस रूप में पहचान सकी
आदमी लिपटा है ख़्वाबों के कफ़न में ऐसा
हर ख़िजाँ में जो बहारों की गवाही देगा
हम भी छोड़ आए हैं इक शोला चमन में ऐसा
लोग मुझ को मेरे आहंग से पहचान गए
कौन बद-नाम रहा शहर-ए-सुख़न में ऐसा
अपने मंसूरो को इस दौर ने पूछा भी नहीं
पड़ गया रख़ना सफ़-ए-दार-ओ-रसन में ऐसा
है तज़ादों भारी दुनिया भी हम-आहंग बहुत
फ़ासला तो नहीं कुछ संग ओ समन में ऐसा
वक़्त की धूप को माथे का पसीना समझा
मैं शराबोर रहा दिल की जलन में ऐसा
तुम भी देखो मुझे शायद तो न पहचान सको
ऐ मेरी रातों में डूबा हूँ गहन में ऐसा