मैं ही कथा... मैं ही व्यथा(सोनेट) / अनिमा दास
मौन परिभाषा रही मैं सदा,मुखर हुई जब...लगता रहा ग्रहण
तुम्हारे अहंकार की सौरछवि पर.. तब जागृत हुआ आधिपत्य
स्वीकारा नहीं तुम शुभारंभ,मेरी स्वाधीनता का, न ही प्रसरण
यह नहीं थी तुम्हारी परिधि..अथवा नहीं था..जिह्वा का सत्य।
क्षमा की क्षमता में थी वीभत्स आसक्ति..मैं स्वयं में थी निरुत्तर
शब्दों को नहीं मिली ध्वनि कभी.. कभी तुम रहे नित्यशः बधिर
मैं शृंगो में..करती रही अनुसरण आयु का, जो रही सदा अनुत्तर
जीवन का अपराह्न रहा उद्विग्न...बहता रहा...यामा का रुधिर।
सर्वशेष..मैं थी...थी व्यथा मेरी...थी मेरी अपूर्ण -सतृष्ण गाथा
न में दे पायी विज्ञप्ति कभी..न तुम कर पाये मर्म का आविष्कार
एक बूँद अश्रु थी मैं..अग्निकुण्ड में जैसे दग्ध होती प्राचीन प्रथा
किंतु हुई रचित ग्रन्थावली..आश्रित नारीत्व का असंपूर्ण विस्तार।
हे,शिथिल भूमि...! हे,तप्त वायुमंडल...! हे,क्षुब्ध क्षुधित वीरत्व..!
क्या सदैव रहेगा बन दंशित कारण..स्त्री स्वरूप का तरल तत्त्व?