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मैं ही मुक्त न हुआ-1 / सुतिन्दर सिंह नूर
Kavita Kosh से
तुमने तो मुझे
कई बार मुक्त किया
मैं ही मुक्त न हुआ।
मैं बहुत बार चला जाता
मखमली घास पर
अदृश्य कदमों के निशान खोजता
बातें करता
ताज़ा फूल और पत्तियों के संग
खिलते हुए फूलों की
प्रथम आयु की महक का इंतज़ार करता
किसी अदृश्य टहनी के
कोयल कूकती और कहती-
मैं गीत के साथ-साथ
प्रतीक्षा करती हूँ तेरी बहुत आगे।
मैं पहुँचता
बूंदा-बांदी के पार
दूर नदियों के पास
देखता लहरों को
उमड़ते-फैलते।
मैं खेलता
इन्द्रधनुष की
ऊँचाइयों के अंग-संग
और अन्त में
लौट आता वापस
तेरी सरगमों को
देखता-परखता।
तूने तो मुझे मुक्त किया
कई बार
मैं ही मुक्त न हुआ।
मूल पंजाबी भाषा से अनुवाद : सुभाष नीरव